
दड़बे की मुर्गियों में है अब डर बना हुआ, इक बाज आ गया है कबूतर बना हुआ
-सत्येन्द्र गोविन्द
ई-मेल:satyendragovind@gmail.com
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रविवार साहित्यिकी में इस बार हम लेकर आए हैं आदरणीय "अभिषेक सिंह" जी की ग़ज़लें। आप 'भेल' में अभियंता के रूप में कार्यरत हैं। आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं - "बाद-ए-सबा", तीन साझा ग़ज़ल संग्रह और साथ ही आपकी ग़ज़लें और कविताएँ बहुत-सी समसामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।
आइए पढ़ते हैं अभिषेक सिंह जी की पाँच बेहतरीन ग़ज़लें-
ग़ज़ल-1
हर ओर पसरने लगा है बाढ़ का पानी
अब हद से गुज़रने लगा है बाढ़ का पानी
पानी है मगर प्यास बुझा भी नहीं सकते
प्यासे को अखरने लगा है बाढ़ का पानी
रक्खें कहाँ हम बेबसी की गठरियों का बोझ
सड़कों पे भी भरने लगा है बाढ़ का पानी
आशा के बने बाँध सभी टूट रहे हैं
तेजी से उभरने लगा है बाढ़ का पानी
डूबेगी मेरे साथ ही अश्क़ों की नदी भी
आँखों मे उतरने लगा है बाढ़ का पानी
खेतों की फ़सल चरता हैं ज्यों बकरियों का झुंड
इंसान को चरने लगा है बाढ़ का पानी
अब आस्था की मूर्तियाँ भी बहने लगी हैं
देवल में भी भरने लगा है बाढ़ का पानी
ठहरेगी वहाँ कैसे भला ज़िंदगी की नाव
जिस ठाँव ठहरने लगा है बाढ़ का पानी
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ग़ज़ल-2
मज़हब पे, जात-पात पे, लड़ने लगे हैं हम
ये किस तरह की बात पे लड़ने लगे हैं हम
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नफ़रत की इक बिसात पे लड़ने लगे हैं हम
सरकारी काग़ज़ात पे लड़ने लगे हैं हम
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अंजाम जानबूझ के जिसको दिया गया
उस झूठी वारदात पे लड़ने लगे हैं हम
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होना था इससे पार हमें साथ-साथ में
पर बीच पुल-सिरात पे लड़ने लगे हैं हम
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हम लड़ते-लड़ते हो गए कुछ ऐसे बे-अदब
की अदबी एहतियात पे लड़ने लगे हैं हम
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ग़ैरों से दोस्ती की हमें फ़िक्र है मगर
अपनों से बात-बात पे लड़ने लगे हैं हम
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इससे मिलेगा क्या जरा फुर्सत में सोंचना
जिस चर्चा-ए-वाहियात पे लड़ने लगे हैं हम
(पुल-सिरात : स्वर्ग के रास्ते में नर्क के ऊपर का एक पुल जिससे सभी को एक दिन गुजरना है)
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ग़ज़ल-3
क़स्बे से था ज़रा-सा जो हटकर बना हुआ
जाने कहाँ वो गुम हुआ पोखर बना हुआ
दड़बे की मुर्गियों में है अब डर बना हुआ
इक बाज आ गया है कबूतर बना हुआ
बस्ती में भेड़ियों की हैं माँदे बनी हुईं
जंगल के बीच में है कहीं घर बना हुआ
हर रोज़ सैंकड़ों को निगलता है नामुराद
छोटा सा वायरस यहाँ अजगर बना हुआ
चलने को तो यूँ चलने लगे हैं सभी मगर
चलना अभी भी है यहाँ दुष्कर बना हुआ
इक दूसरे पे लोग जहाँ चीखते रहे
चुपचाप मैं खड़ा रहा पत्थर बना हुआ
बूढ़ा हुआ तो उड़ गये पंछी दरख़्त से
बरगद के दिल में रह गया कोटर बना हुआ
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ग़ज़ल-4
सुकूँ की रौशनी से दूर हैं हम
पलायन के लिए मजबूर हैं हम
न हमपे लाद अपनी ख़्वाहिशों को
अभी ख़ुद की थकन से चूर हैं हम
जिसे हमने जतन से है बनाया
उसी के टूटते दस्तूर हैं हम
ज़रूरत थे कभी हम जिस शहर की
अब उसके वास्ते नासूर हैं हम
तरक्की की इमारत जानती है
यहाँ हर ईंट में मशहूर हैं हम
किसी ने भी मुझे समझा नहीं है
इसी इक बात से रंजूर हैं हम
हमारा झोपड़ा है हाशिये पर
हमें कहते हैं सब मजदूर हैं हम
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ग़ज़ल-5
बदल सका न मैं जज़्बात तेरे उत्सव में
मैं हँस नहीं सका कल रात तेरे उत्सव में
तुम्हारे शोर में शायद वो दब गई होगी
सिसक रही थी मेरी रात तेरे उत्सव में
किसी की बेबसी ठहरी हुई है होठों पर
करूँ तो कैसे कोई बात तेरे उत्सव में
मैं जिससे चाहता था उम्र भर नहीं मिलना
मिला वो मुझसे अकस्मात तेरे उत्सव में
सिले हैं होंठ जिन आगंतुकों के पहले से
करें वो कैसे सवालात तेरे उत्सव में
हरेक शै हुई जाती है मातमों के अधीन
ग़मों का हो रहा आयात तेरे उत्सव में
बरस रहे हैं कई मेघ आंसुओं के यहाँ
खड़े हैं भीगते हज़रात तेरे उत्सव में
-अभिषेक सिंह (गया,बिहार),
बी टेक (मेकेनिकल),भेल में अभियंता के रूप में कार्यरत
ई-मेल: abhishek.ks@bhel.in
मो०नं०-8903768162