
इक किताब ऐसी जिसमें नाकामी से उलझे मन के प्रश्नों का हल मिल जाए जिसको पढ़ने भर से बदतर जीवन को एक सुनहरा सपनीला कल मिल जाए
आज रविवार है और एक बार फिर हम आपके सामने कुछ गीतों के साथ रूबरू हैं।
आइए साहित्य के इस रविवारीय अंक में पढ़ते हैं 'सत्येन्द्र गोविन्द जी' के चार गीत। आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं- 'पाँव गोरे चाँदनी के' , 'उन्मुक्त परिंदे' दोनों साझा संकलन।आपके गीत और ग़ज़ल कई पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं।
आइए 'सत्येन्द्र गोविन्द जी' के चार गीत पढ़ें-
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गीत-1
बुरे समय का रोना-रोने से बेहतर है
चार किताबों का अक्षर-अक्षर पढ़ लेना
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इक किताब ऐसी जिसमें नाकामी से
उलझे मन के प्रश्नों का हल मिल जाए
जिसको पढ़ने भर से बदतर जीवन को
एक सुनहरा सपनीला कल मिल जाए
आँख मूँद कर चलते ही मत जाना केवल
तुम रस्ते का हर पत्थर-पत्थर पढ़ लेना
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अवसादों का शोर शांत करने वाली
इक किताब ऐसी जिसमें ख़ामोशी हो
जिसको पढ़कर मतवाले हो जाएँ सब
इक किताब ऐसी जिसमें मदहोशी हो
पढ़ लेना पढ़ने का अवसर मिले कभी तो
धीरे-धीरे तुम,धरती-अंबर पढ़ लेना
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काम बंद हो अगर सभी कम्पनियों के
अपना ही घर हो अपनों का जेल बना
एक बात फिर भी मन को हर्षाएगी
पढ़ना लिखना तब भी होगा नहीं मना
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इक किताब जो मंज़िल तक पहुँचा सकती हो
तुम उसको पूरा बाहर-भीतर पढ़ लेना
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गीत-2
जिनको कोई भी मर्यादित काम नहीं अच्छा लगता,
उनके मुख से राम नहीं अच्छा लगता।
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मन की बंद पड़ी आँखों का,
द्वार खोलना होता है।
राम-राम कहने वालों को,
सत्य बोलना होता है।।
जिनको सच कहने वालों का नाम नहीं अच्छा लगता,
उनके मुख से राम नहीं अच्छा लगता।
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जिनको विदित नहीं क्या जानें,
वचन निभाना क्या होता ?
पल में अपना राज त्यागकर,
वन में जाना क्या होता ?
जिनको भी इस जीवन का संग्राम नहीं अच्छा लगता,
उनके मुख से राम नहीं अच्छा लगता।
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राम-सिया जब घर लौटे तो,
प्रश्न बहुत थे खड़े हुए।
संघर्षों का जीवन जीकर,
राम और भी बड़े हुए।।
जिनको अपने ही पुरखों का ग्राम नहीं अच्छा लगता,
उनके मुख से राम नहीं अच्छा लगता।
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गीत-3
आज अचानक इन्स्टाग्राम पे एक तेरी तसवीर मिली
मुझे लगा ऐसा जैसे राँझे को उसकी हीर मिली
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चम्पा,शैफालिका,चमेली तुम जूही का जादू
नीलकमल की पंखुड़ियाँ तुम गंधराज की खुशबू
अमलतास के स्वर्णिम फूलों को तेरी तासीर मिली
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रूप रुपहला देख अघाऊँ,झूमूँ-नाचूँ-गाऊँ
ढोल-मँजीरा बजा-बजा के अतिशय हर्ष मनाऊँ
पलभर ही आह्लादित होऊँ,इतनी तो तकदीर मिली
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दूब-फूल,अक्षत-जल तुम ही,तुम कंचन की थाली
भीनी-भीनी महक तुम्हीं से,तुम चंदन की डाली
लगता है ऐसा मुझको जैसे कोई जागीर मिली
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गीत-4
खण्ड-खण्ड भीतर कोए में बँटे हुए
हम बड़हल के फल जैसे बेडौल रहे
अपने अंतस्तल में उभरी बेचैनी,
अनदेखा करते दोपहरी धूपों में।
चिंतन करते कब बिखरे संबंधों पर,
टर्र-टर्र करते रहते मेढ़क कूपों में।
हम सहमे-सहमे बस देखा करते हैं,
कब तक आबंधों की ये दीवार ढ़हे।
दोष मढ़ेंगे हम भी तो आखिर किस पर,
हम ही जब पहचान न पाए ग़लत-सही।
मन से मन के इस दुराव का पूछो तो,
मौलिक कारण संवादों की कमी रही।
हमने तो धर ली अधरों पर ख़ामोशी,
पर नयनों को चुप रहने की कौन कहे।
शांति यज्ञ में जो पढ़ना था पढ़ न सके,
उच्चारित कर बैठे हम किन मंत्रों को।
पता नहीं ये किन आवेशों में बहकर,
हवा हमीं ने दे दी इन षड्यंत्रों को।
अब तो झुलस गई कितनों की त्वचा बहुत,
आखिर कोई कितना आतप और सहे।
-सत्येन्द्र गोविन्द
मुजौना, बेतिया (बिहार)
-6200581924
ई-मेल:satyendragovind@gmail.com