
तमाम उम्र खपाई मुझे गिराने में वो शख़्स मैंने जिसे बारहा उठाया था
आज रविवार है और एक बार फिर हम आपके सामने कुछ ग़ज़लों के साथ रूबरू हैं।
आइए साहित्य के इस रविवारीय अंक में पढ़ते हैं 'सत्येन्द्र गोविन्द जी' की पाँच ग़ज़लें। आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं- 'पाँव गोरे चाँदनी के' , 'उन्मुक्त परिंदे' दोनों साझा संकलन। आपके गीत और ग़ज़ल कई पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं।
आइए 'सत्येन्द्र गोविन्द जी' की पाँच ग़ज़लें पढ़े-
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ग़ज़ल-1
अगर ढूँढ़ो तो सच्चाई बहुत मुश्किल से मिलती है
यहाँ अच्छों में अच्छाई बहुत मुश्किल से मिलती है
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सुनाई रोज़ देती है सदा ग़म की हमें लेकिन
कहीं खुशियों की शहनाई बहुत मुश्किल से मिलती है
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दिलों में भाईयों के घर बना ले जब ग़लतफहमी
बिखरकर फिर से अँगनाई बहुत मुश्किल से मिलती है
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बहुत मुश्किल से मिलता है कोई देवर लखन जैसा
कहीं सीता-सी भौजाई बहुत मुश्किल से मिलती है
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किसी की जी हुज़ूरी मत करो मेहनत करो गोविन्द
सफलताओं की ऊँचाई बहुत मुश्किल से मिलती है
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ग़ज़ल-2
कि जैसा था बहुत पहले तू अब वैसा नहीं लगता
यही पहलू तेरे किरदार का अच्छा नहीं लगता
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जुबां देकर मुकर जाना तेरी आदत पुरानी है
मुसलसल रह सकेगा फिर तेरा वादा नहीं लगता
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ग़रीबी किस कदर हावी है ये मत पूछिये साहिब
जहाँ इच्छा है बेटी की वहाँ रिश्ता नहीं लगता
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लगेगी घूस भीतर ये सुनिश्चित है अगर बाहर
लिखा दीवार पर होगा यहाँ पैसा नहीं लगता
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भले ही लाख झूठा है मगर माँ की कसम खाकर
कभी वो झूठ बोलेगा मुझे ऐसा नहीं लगता
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करूँ जब भी गलत "गोविन्द" मुझको डाँट सकते हैं
मुझे लहजा बुज़ुर्गों का कभी कड़वा नहीं लगता
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ग़ज़ल-3
मुझे तो ख़ुशी बस इसी बात की है
जली ही सही एक रोटी मिली है
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मैं अपना निवाला उठाऊँ तो कैसे
मेरे दर पे भूखी भिखारन खड़ी है
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न पूछो अभी हाल कैसा है मेरा
मेरे साथ फिर मुफ़लिसी चल पड़ी है
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अगर पढ़ सकें तो निहाँ हर्फ़ पढ़िए
वरक़ दर वरक़ बस मुहब्बत लिखी है
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मुझे माँ ने जिस पल सिखाया था चलना
उसी पल की तस्वीर दिल पर लगी है
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वो अपना सा लगता था गोविन्द पहले
मगर जब मिला तो लगा अज़नबी है
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ग़ज़ल-4
उड़ते बाज़ों के फैले पर देखे हैं
आँखों में नागों के भी डर देखे हैं
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जंगल में देखे हैं कुछ इनसानों को
शहरों में कुछ भालू बंदर देखे हैं
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मस्त हुये सपनों में गर्वित लोगों को
ठोकर खाते हमने अक्सर देखे हैं
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कटते पेड़ों पर जब भी नाराज़ हुआ
मौसम को बरसाते पत्थर देखे हैं
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ओढ़े रहती है कितनी किरदारों को
हमने माँ के चेहरे पढ़कर देखे हैं
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दोषी ठहराया जाता कमजोरों को
बलवानों के पीछे लश्कर देखे हैं
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पागल घोषित कर देते हैं लोग हमें
महफिल में हम तन्हा हँसकर देखे हैं
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ग़ज़ल-5
क़रीबियों ने मुझे इस क़दर सताया था
मैं ख़ुद को ख़ुद से भी बाहर निकाल लाया था
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किसी ने यूँ ही मेरी पीठ थपथपाई थी
मैं हौसले से मगर जंग जीत आया था
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वहाँ पे नागफनी अब ठठाके हँसते हैं
जहाँ पे मैंने कभी तुलसी को लगाया था
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मैं जानता था मगर फिर भी पी गया हँसके
किसी ने ज़हर बहुत प्यार से पिलाया था
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थी बात इश्क़ की सो झुक गया तेरे आगे
वरना मैंने कभी सर नहीं झुकाया था
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तमाम उम्र खपाई मुझे गिराने में
वो शख़्स मैंने जिसे बारहा उठाया था
-सत्येन्द्र गोविन्द
मुजौना, बेतिया (बिहार)
-6200581924
ई-मेल:satyendragovind@gmail.com